गुमला जिला मुख्यालय से 26 किलोमीटर दूर पालकोट छोटानागपुर के नागवंशी राजाओं के गढ़ के रूप में मशहूर रहा है. नागवंशी राजाओं ने लालगढ़ में जो महल बनाया था, उसकी शानो-शौकत और स्थापत्य की प्रसिद्धि 19वीं और 20वीं शताब्दी में दूर-दूर तक रही.
महल अब भग्नावशेष में तब्दील हो गये हैं, लेकिन इसका अतीत अत्यंत गौरवशाली रहा है. लालगढ़ महल की कहानी भी अत्यंत दिलचस्प है. 1823 में पालकोट के युवराज की शादी रीवा स्टेट में हुई थी. पालकोट नरेश शैव मत के अनुयायी थी. जब युवराज का विवाह तय हुआ तब रीवा नरेश ने पालकोट नरेश ने कहा कि उनकी बेटी दुर्गा की उपासक है. शादी के बाद ससुराल में उसके लिए शक्ति की उपासना की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए.
रीवा की राजकुमारी से विवाह के लिए पालकोट नरेश और उनके परिवार ने रीवा राज परिवार की शर्त मान ली. रीवा की राजकुमारी पालकोट की रानी बनकर आयी तब वह अपने साथ मां दशभुजी की मूर्ति भी लायी थीं. इन्हीं मां दशभुजी के पालकोट के लालगढ़ में नयी हवेली बनायी गयी.
लालगढ़ में मां दशभुजी की पूजा धूमधाम से होने लगी. यहां हर साल शारदीय नवरात्र पर विशेष अनुष्ठान होता था. 19वीं शताब्दी में के उत्तरार्ध में नवल किशोर नाथ शाहदेव यहां का राज्याभिषेक हुए. 1903 में नागवंशी राजपरिवार में कंदर्प नाथ शाहदेव का जन्म हुआ, जिनका वर्ष 1927 में राज्याभिषेक हुआ था. उनके काल में इस राजघराने का वैभव कायम रहा.
1957 में राजा कंदर्प नाथ शाहदेव राजसी ठाट-बाट छोड़कर संन्यासी बन गये. वे योगी बनकर वाराणसी के गंगा तट पर चले गये. उसके बाद उनके पुत्र कृष्णा नाथ शाहदेव लालगढ़ छोड़कर पालकोट के पुराने महल में आ गये. उनके पुत्र राजा गोविंद नाथ शाहदेव अभी पालकोट के महल में रहते हैं.
राज परिवार के लालगढ़ छोड़कर पालकोट आने के बाद लालगढ़ का महल उचित देखरेख के अभाव में वीरान होता गया. पहाड़ी की तराई में स्थित लालगढ़ महल के भग्नावशेष बताते हैं कि एक वक्त में यहां कैसा राजसी वैभव रहा होगा.
इस महल के पुरातात्विक संरक्षण की मांग हमेशा उठती रही है, लेकिन किसी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया.
(तस्वीरें रिडिस्कवर झारखंड के संस्थापक संजय बोस के सौजन्य से)
+ There are no comments
Add yours