Akshay Kumar Jha
Ranchi: पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड में करीब चार दशक से राजनीति में सक्रिय रहने वाले रघुवर दास को भाजपा ने फिलहाल झारखंड की राजनीति से अलविदा कह दिया गया है. पार्टी की तरफ से उन्हें रेस्ट करने को कहा गया है. वो ओडिशा के राज्यपाल के पद पर विराजेंगे. इसकी अधिसूचना जारी हो चुकी है. रघुवर की ओडिशा रवानगी के बाद अब कई तरह की बात निकल कर सामने आ रही है. राजनीतिक विशेषज्ञ इस मामले को लेकर अब कई तरह के राजनीतिक एंगल की बात कर रहे हैं.
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न्यूज विंग की टीम ने भी राजनीति और नौकरशाही से जुड़े लोगों से इस मामले को लेकर बात की. इस बातचीत में जो निचोड़ निकल कर सामने आया है, वो कतई चौंकाने वाला नहीं है. दरअसल बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने रघुवर दास को झारखंड से अलग कर ये साफ संदेश दे दिया है कि प्रदेश में पार्टी का एक ही चेहरा हो सकता है. मुख्य रुप से दो भागों में बंटी बीजेपी अब सिर्फ बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व और चेहरे के रूप में सामने आ गयी है. संदेश साफ है कि बीजेपी में रहना है तो मरांडी-मरांडी करना ही होगा. पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने देर से ही लेकिन निर्णय सही लिया है. इससे पहले भले ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी थे, लेकिन ताल ठोंक कर यह कोई नहीं कह सकता है कि पावर सेंटर की कमान बाबूलाल के पास थी. लेकिन अब ऐसा होता नजर आ रहा है.
सबसे बड़ा फैक्टर आदिवासी वोटरों को रिझाना
रघुवर दास को झारखंड से अलग कर पार्टी ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. पहला निशाना आदिवासी वोटर हैं. पार्टी 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. 28 आदिवासी सीटों पर पार्टी को केवल 2 सीटें ही मिल सकी. निःसंदेह इस हार की बड़ी वजह रघुवर दास को माना गया. सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन करना भी रघुवर दास के कार्यकाल की एक भूल की तरह देखी जा रही है. बाद में चुनाव खत्म होने के कुछ ही महीनों बाद ही बीजेपी और आदिवासी वोटरों के बीच बनी खाई को भरने के लिए बाबूलाल को पार्टी में लाया गया.
पहले विधायक दल का नेता ( हालांकि अब अमर आउरी को बनाया गया) और अब प्रदेश अध्यक्ष की बड़ी जिम्मदेरी दी गयी. फिर भी यह फॉर्मूला काम नहीं कर रहा था. पार्टी का एक धड़ा रघुवर की तरफ ही झुका दिख रहा था. इस समस्या को दूर करने के लिए आदिवासी समुदाय से आने वाले बाबूलाल को प्रदेश में पार्टी की पूरी कमान दे दी गयी. पार्टी की तरफ से बाबूलाल को ऐसी पिच तैयार कर दे दी गयी है, जिसपर वो खुल कर बैटिंग कर सकें. रघुवर को टीम से बाहर कर अब कोल्हान और संथाल में आदिवासी वोटरों को अपनी तरफ करने का टास्क भी बाबूलाल के जिम्मे है. इस कसौटी पर अगर वो खरे उतर जाते हैं, तो निश्चित तौर पर अगली ताजपोशी बाबूलाल की ही होगी.
सरयू राय बहुत ही मामूली फैक्टर
रघुवर दास की ओडिशा विदाई पर कई लोगों का कहना है कि सरयू राय की अब पार्टी में वापसी हो सकती है. वैसे तो राजनीति में कुछ भी हो जाना बहुत चौंकाने वाली बात नहीं होती, लेकिन फिलहाल ऐसी कोई बात नहीं है. बीते विधानसभा चुनाव में जमशेदपुर पूर्वी से सरयू राय की रघुवर दास पर हुई जीत ने भले ही सरयू राय को रघुवर दास से ऊंचा बना दिया था. लेकिन सच्चाई यह है कि सरयू राय जितना उस सीट से जीते थे, उससे कई गुना ज्यादा रघुवर दास खुद उस सीट से हारे थे. उनकी हार की अपनी एक वजह थी. निश्चित तौर पर रघुवर दास एंटी इनकमबेंसी का शिकार हुए थे. सरयू राय एक सधे हुए राजनेता हैं. इस बात की भनक उन्हें थी और उन्होंने इसका बखूबी फायदा उठाया. वहीं दूसरी तरफ बीजेपी जैसी बड़ी पार्टी महज एक विधानसभा सीट के लिए किसी को राज्यपाल जैसे पद नवाजने से रही.
हेमंत फिलहाल बिल्कुल सेफ
रघुवर दास के राज्यपाल बनने के बाद यह बात भी सामने आ रही है कि हेमंत सोरेन पर भी अब कोई बड़ी कार्रवाई हो सकती है. हालांकि राजनीतिक दिग्गजों का मानना है कि ऐसा कुछ भी फिलहाल नहीं होने जा रहा है. रघुवर दास का राज्यपाल बनने वाला प्रकरण पूरी तरह से आदिवासी वोटरों को पार्टी के करीब लाने के लिए किया गया है. ऐसे में अगर हेमंत सोरेन पर केंद्रीय जांच एजेंसी उनके सीएम रहते कोई कार्रवाई करती है तो आदिवासी वोटरों को करीब लाने की इस मुहिम पर पूरी तरह से पानी फिर जाएगा. इस प्रकरण के बाद जेएमएम के संभावित बगावती तेवर से आदिवासियों की पूरी सहानुभूति हेमंत सोरेन को मिलेगी. इसलिए कहा जा रहा है कि फिलहाल हेमंत सोरेन बिल्कुल सेफ है. अगर हेमंत पर किसी तरह की कार्रवाई करनी ही होती तो उन्हें अभी तक पांच बार ईडी की ओर से समन नहीं भेजा गया होता. शायद ही किसी मामले में ईडी ने किसी को इतनी बार समन भेजा होगा.
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