पत्नी, बेटी या नाबालिग निदेशक भी Check Bounce में जिम्मेवार ठहराए जा सकते हैं – सुप्रीम कोर्ट

 

भारत में महिलाओं और नाबालिगों को संपत्ति या व्यवसाय में शामिल करने के लिए अनेकों सरकारी प्रोत्साहन मिलते हैं—रजिस्ट्रेशन शुल्क में छूट, स्टांप ड्यूटी में रियायत और कई योजनाएं महिलाओं को आर्थिक रूप से सक्रिय करने के लिए तैनात की गई हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि व्यवसाय के भीतर पार्टनर या निदेशक के रूप में नाम जोड़ते समय, चेक बाऊंस या किसी वित्तीय देनदारी में उन्हें कानूनी रूप से अपवाद नहीं मिलते? यह सवाल सुप्रीम कोर्ट में सामने आया जब HDFC बैंक बनाम राज्य महाराष्ट्र (2025 IASC 759) के मामले में तीन को-डायरेक्टर्स—जिनमें एक महिला और उसकी नाबालिग बेटी शामिल थीं—के विरुद्ध चेक बाऊंस के तहत आपराधिक कार्यवाही की मांग उठी।

नीचे विस्तार से देखें कि इस केस ने क्या पृष्ठभूमि, तर्क, निर्णय और व्यावहारिक निहितार्थ पेश किए।


1. मामले की पृष्ठभूमि

  • शोरूम खोलने का प्रकरण

    • अपीलीय पक्ष (शोरूम संचालक) ने Hyundai का एक शोरूम स्थापित किया।

    • इसके लिए कंपनी में तीन निदेशक बने—श्री नागपाल, रचना शर्मा (पत्नी) और रुचि शर्मा (दिया गया नाम, जो नाबालिग थीं)।

    • तीनों ने मिलकर बैंक से वर्किंग कैपिटल के लिए ऋण सीमा (लाइन ऑफ क्रेडिट) मंजूर कराई, जो क्रमशः ₹2 करोड़, फिर ₹5 करोड़ और बाद में अतिरिक्त ₹3 करोड़ तक बढ़ाई गई, कुल सीमा ₹8 करोड़ तक पहुंची।

  • व्यापार में उतार-चढ़ाव

    • प्रारंभिक दौर में लेन-देन सही ढंग से चलते रहे।

    • बाद में देनदारी चुकाने में व्यवधान आया, भुगतान समय पर नहीं हो पाया।

    • बैंक ने इस ऋण सीमा को सीधी लोन में परिवर्तित कर दिया और जब ब्याज अदा नहीं हो सका, तो खाते को सीज कर दिया।

  • आपराधिक शिकायत

    • खाते के सीज होने को अवैध मानते हुए, शोरूम संचालक ने राज्य सरकार (महाराष्ट्र) के विरुद्ध दंड प्रक्रिया प्रारंभ कर दी।

    • चूंकि मामला चेक और प्रॉमिसरी नोट की बाउंसिंग से जुड़ा था, अतः नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की धारा 138 (चेक बाऊंस) व धारा 141 (स्वचालित अपराध की जिम्मेदारी) के तहत मुकदमा दर्ज किया गया।


2. हाई कोर्ट में तर्क और निर्णय

  • महिला निदेशकों का पक्ष

    • रचना और रुचि (पत्नी व बेटी) का तर्क था कि उनका व्यवसाय में कोई “सक्रिय” योगदान नहीं था।

    • केवल नाम मात्र निदेशक रह जाने पर उन पर आपराधिक जिम्मेदारी नहीं लगाई जा सकती।

    • SMS फार्मास्युटिकल बनाम नीताभल्ला (2005 SCC 89) का अध्ययन कर यह दावा किया कि धारा 141 के तहत केवल वे लोग दोषी ठहराए जा सकते हैं, जिनका उस समय वयवसाय संचालन में सक्रिय हाथ हो।

  • हाई कोर्ट का संक्षिप्त निष्कर्ष

    • हाई कोर्ट ने सहमति जताई कि केवल डिज़ाइनेशन पर्याप्त नहीं। सक्रिय कर्तव्य निभाने वाले निदेशकों के विरुद्ध मामला चलेगा।

    • चूंकि मां—बेटी सहित अन्य दो निदेशक (नागपाल) ने बैंक संचालन एवं लोन लेनदेन में हस्ताक्षरि अधिकार सीमित कर रखे थे, इसलिए हाई कोर्ट ने महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मामला खारिज कर दिए जाने की ओर झुकाव दिखाया।


3. सुप्रीम कोर्ट में याचिका

  • उद्देश्य

    • बैंक की अपील—महिला निदेशकों को भी उस समय कंपनी के प्रबंधकीय एवं वित्तीय निर्णयों में शामिल बताया गया था, अतः उन्हें भी धारा 141 के तहत जिम्मेदार माना जाना चाहिए।

    • सुप्रीम कोर्ट से उच्च न्यायालय के आदेश को पलटने की माँग।

  • मुख्य तर्क

    1. पावर ऑफ़ अटॉर्नी एवं बोर्ड रेजोल्यूशन

      • ऋण सीमा स्वीकृति और प्रॉमिसरी नोट जारी करने तक बोर्ड ने जो रेजोल्यूशन पास किए, उनमें महिला निदेशकों को नियुक्ति एवं हस्ताक्षरि अधिकार दिए गए।

      • अतः केवल नाम मात्र नहीं, बल्कि सक्रिय भूमिका निर्धारित की गई थी।

    2. प्रॉमिसरी नोट की वैधता

      • बैंक ने चेक बाऊंस के बाद प्रॉमिसरी नोट प्रस्तुत करने को कहा, जिस पर पूरे निदेशक मंडल ने हस्ताक्षर किए।

      • इस नोट के डिफॉल्ट से आपराधिक धारा 138 के आरोप स्वतः धारा 141 तक ले जाते हैं।

    3. पूर्व निर्णयों का हवाला

      • सुप्रीम कोर्ट ने SMS फार्मास्युटिकल बनाम नीताभल्ला (2005 SCC 89) एवं KK आहूजा बनाम VK बोरा मामलों की व्याख्या ध्यान से पढ़ी।

      • उक्त मामलों में यह सिद्ध है कि केवल पदनाम नहीं, बल्कि उस समय निदेशक की सक्रिय भागीदारी एवं नियुक्ति की शक्ति मायने रखती है।


4. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

  • धारा 141 के दायरे का विस्तार

    • कोर्ट ने स्पष्ट किया कि चेक बाऊंस या प्रॉमिसरी नोट के आपराधिक आरोप में वे निदेशक भी शामिल होंगे, जिन्होंने उस लेन-देन की स्वीकृति या निष्पादन में कोई सक्रिय भूमिका निभाई।

    • नियुक्ति के समय पास किए गए बोर्ड रेजोल्यूशन एवं दिए गए अधिकार पूर्ण मान्यता के साथ स्वीकारे जाएंगे।

  • महिला निदेशकों पर प्रभाव

    • रचना शर्मा (पत्नी) और रुचि शर्मा (बेटी) ने उन निर्णयों में हस्ताक्षर किए, जिनसे स्पष्ट होता है कि वे बैंक खाते का संचालन, ऋण आवेदन, भुगतान आश्वासन एवं प्रॉमिसरी नोट की कानूनी मान्यता में शामिल थीं।

    • अतः सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के उस मार्गदर्शन को संशोधित करते हुए कहा कि इन दोनों निदेशकों को भी धारा 141 के तहत अभियुक्त बनाया जा सकता है।


5. व्यावहारिक निहितार्थ एवं सावधानियां

  1. नाम मात्र निदेशक की मिथ

    • व्यवसाय में किसी को नाम मात्र डायरेक्टर या पार्टनर बनाना, उसे कोई कानूनी सुरक्षा नहीं देता।

    • अधिनियम 1956/2013 (कंपनी अधिनियम) एवं नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट के तहत, जो निर्णय एवं अनुबंध उस व्यक्ति के हस्ताक्षर द्वारा संपन्न होंगे, वे सभी कानूनी रूप से बाध्यकारी और उत्तरदायी होंगे।

  2. बोर्ड रेजोल्यूशन पर विशेष ध्यान

    • निदेशक मंडल द्वारा पास किए गए सभी रेजोल्यूशन, विशेषकर बैंक लोन अथवा वित्तीय साधनों हेतु, साक्ष्य के रूप में महत्वपूर्ण होते हैं।

    • यदि आप किसी को केवल तकनीकी रूप से “शेयरहोल्डर” या “नॉमिनल डायरेक्टर” बनाते हैं, तो भी उसे स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार है और वह उस सौदे में जवाबदेह होगा।

  3. महिला एवं नाबालिग निदेशकों का उत्थान और जोखिम

    • सरकार की रियायतें प्रोत्साहन के लिए हैं, परंतु जब आप प्रॉपर्टी ट्रांसफर या शेयर आबंटन कर रहे हों, तो इसकी कानूनी व्याख्या में सावधानी बरतें।

    • बच्चों को निदेशक या पार्टनर बनाना सुझायी देने वाले सलाहकार से पूछें—क्या उनके वित्तीय धोखाधड़ी या लेन-देन में देनदारी सीमित की जा सकती है?

  4. कानूनी परामर्श अनिवार्य

    • ऐसे समय पर जहां चेक बाऊंस, प्रॉमिसरी नोट या बैंक ऋण से जुड़ी स्थिति खराब होती हो, तुरंत अनुभवी कॉर्पोरेट या ऋण पुनर्गठन विशेषज्ञ से राय लें।

    • दंड विधि और कंपनी कानून की टकराहट में सूक्ष्म अंतराल आपके खिलाफ आपराधिक मुकदमे तक ले जा सकते हैं।


6. निष्कर्ष

– यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला हमें सचेत करता है कि कंपनी के किसी भी प्रमुख वित्तीय अनुबंध में शामिल हर नाम—चाहे वह महिला, नाबालिग या बाहरी विशेषज्ञ हो—कानूनी रूप से उतनी ही जिम्मेदारी निभाता है जितना कोई स्थापित व्यवसायी।
– अन्नदाता परिवार के सदस्यों को नाम मात्र निदेशक बनाना, केवल सरकारी रियायतों के लालच में, भविष्‍य में आपराधिक और वित्तीय जोखिमों को आमंत्रित कर सकता है।
– अतः व्यवसायी, उद्यमी और निजी निवेशकों के लिए जरूरी है कि निदेशक-मंडल की नियुक्ति, बोर्ड रेजोल्यूशन एवं वित्तीय अनुबंधों में शामिल लोगों की सक्रिय भूमिका को साफ़-साफ़ परिभाषित करें और कानूनी दस्तावेजों को यथासंभव पारदर्शी बनाएं।

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